औषधि क्षेत्र का मेरा जीवन परिचय
आप लोगों में से बहुत से लोगों ने मेरे बारे में जानने की इच्छा जाहिर की है तो मैं आपको बता दूं । मैं कोई बहुत बड़ा ज्ञानी या चमत्कारी नहीं हूँ आप लोगों की तरह ही एक इंसान हूँ लेकिन ईश्वर ने दया की है तो मैं उसका शुक्रगुजार हूँ । इसलिए आज आपकी मांग पर मैं अपने मेडिकल क्षेत्र का जीवन लिख रहा हूँ।
शायद मैं 8th क्लास का स्टूडेंट था । उस समय मेरे दिमाग में एक बात आई कि चिकित्सा कार्य करना चाहिए । उस समय मेरे पास कोई साधन नहीं था । इसलिए मैंने चिकित्सा करने के लिए आयुर्वेद का सहारा लिया। मैंने खेत में जो उचित समझा उन जड़ी बूटियों का रस निकाल कर एक शीशी मे भर कर एक में मिलाया। उसी जगह पेड़ मे आम लगे थे । मैने आम तोड़े और उनके डन्ठल से निकलने वाले रस को भी उसी मे मिला लिया।
अब बारी थी कि इस बनाई हुई दवा का प्रयोग कहां किया जाए? मैं यह सोच ही रहा था कि एक आदमी लंगडाते हुए मेरे पास से गुजरा। मैंने उससे पूछा क्या हो गया है ? क्यों लंगडा रहे हो ? उसने कहा पैर की उंगलियों में चोट लगी है इसलिए मैं ठीक से चल नहीं पा रहा हूँ । मैंने कहा दवा लगा दूं । उसके मन में मेरे प्रति बड़ा आदर था गांव का आदमी था । उसने कहा भैया लगा दो । मैंने वही दवा शीशी से निकाली और उसके पैरों में लगा दिया और वह चला गया।
दूसरे दिन वह मेरे घर पहुंचा और मुझे पूछा। उस समय मै घर पर नहीं था । मेरे बड़े भाई से उसकी बात हुई । उन्होंने सारी बात सुनी और उससे कहा तुम जाओ। वह घर पर नहीं है । जब मैं घर पर आया तो मुझे तगड़ी डांट पिलाई गई । मैं घबरा गया और उस दवा को फेंक दिया । लेकिन दवा से प्रेम बना रहा । मैं उस आदमी के पास गया और पूछा जो दवा लगाई थी उससे कोई नुकसान तो नहीं पहुंचा । वह कहने लगा नहीं बहुत फायदा हुआ मेरी उंगलियां ठीक हो गई है। एक बार मैं फिर दवा लगवाना चाहता था । मैंने उसे पूरी बात बताई और अस्मर्थता जाहिर की । बात आई गई हो गई ।
8th क्लास के बाद मैं हाई स्कूल में पहुचा संयोग से मुझे साइंस में एडमिशन न मिलकर एग्रीकल्चरल साइंस में मिला। मेरी दवा में रुचि तो थी ही । उस समय हाई स्कूल में भी एनिमल हसबेंडरी का थोड़ा बहुत कोर्स चलता था। इसलिए पशुओं की दवाओं के विषय में मेरी दिलचस्पी बनी रही। गर्मियों की छुट्टी में सारा दिन मैं किसी डॉक्टर के पास में गुजरता था। उनसे डिस्केशन करना और दवाओं के रैपर देखना उनकी जानकारी लेना मेरी दिनचर्या बनी रहती थी।
एलोपैथिक दवाओं की तो कुछ जानकारी हासिल हो गई थी लेकिन होम्योपैथिक के विषय में कुछ नहीं जानता था । उस समय देहाती क्षेत्रों में होम्योपैथिक डॉक्टर होता भी नहीं था। संयोग से एक होम्योपैथिक डॉक्टर शहर से आकर गांव में बैठ गए। मैंने उनको अपना परिचय दिया और अपनी मंशा प्रकट की उन्होंने तुरंत मेरी मंशा को स्वीकृति दे दी । मैं वहां 5 दिन गया पुस्तके पढ़ता रहा लेकिन दवाओं के विषय में कोई अच्छी जानकारी हमें नहीं मिल पाई। कुछ समझ में ही नहीं आया।
इसलिए मैं वहां जाना छोड़ दिया और फिर एलोपैथिक डॉक्टरों के पास जो उस समय गांव में बैठे थे वही बैठने लगा लेकिन मन में एक ललक बनी रही कि मुझे होम्योपैथी भी सीखना है इसलिए जहां होम्योपैथिक पुस्तकें मिलती उन्हें बड़े ध्यान से पढता था।
जब मैं इंटरमीडिएट में पहुंचा तो वहां एनिमल हसबेंडरी का एक विषय ही था। संयोग से मुझे एस. पी. शुक्ला लेक्चरर मिले जो एनिमल हसबेंडरी बहुत रोचक ढंग से पढ़ाते थे। दवाओं के विषय में मुझे पहले से ही ज्ञान था । इसलिए मैं उनका मुंह लगा बन गया । एस पी शुक्ला की दोस्ती उस समय आर पी शर्मा से थी जो मुझे फिजिक्स पढ़ाते थे । एस.पी. शुक्ला के प्रति मेरा व्यवहार देख कर वह भी मुझे प्यार करने लगे मैं उनका भी प्यारा हो गया।
इंटर सेकंड ईयर में पहुंचते-पहुंचते मेरी मेडिकल पकड़ बहुत अच्छी हो गई थी । अब यह मन में आने लगा कि यह पैसा कमाने का साधन बन सकता है । कई डॉक्टर मेरे स्वभाव से परिचित थे। उस समय मेरी पढ़ाई आड़े आ रही थी किसी तरह मैंने ग्रेजुएट कंप्लीट किया । तब मुझे समझ आई कि मेरे पास कोई डिग्री चिकित्सा करने की तो है ही नहीं और मैं चिकित्सक के ख्वाब देख रहा हूं।
उस समय सी पी एम टी आदि की मुझे जानकारी नहीं थी जो जानते थे वे बहुत बड़ा चढा कर समझाते थे। इसलिए मेरा दिमाग उस तरफ नहीं गया । मैंने आयुर्वेद महाविद्यालय लखनऊ का रुख किया लेकिन वहां मुझे बताया गया कि यहां पर पढाई संस्कृत में होती हैं। संस्कृत में मेरी पकड़ अच्छी नहीं थी इसलिए मैं वहां जाना अच्छा नहीं समझा ।
अब मैंने एनिमल हसबेंडरी की तरफ दिमाग दौड़ाया उस समय इज्जत नगर बरेली में इसके कोर्स चलते थे लेकिन वहां जाना मेरे लिए उस समय अमेरिका जाने के बराबर था । अतः मैं वहां भी नहीं जा सका। तब 1977 में मैंने एलोपैथिक प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया जो 1992 तक चलती रही ।
तभी डॉ अनवारुल हक से मेरी मुलाकात हुई उन्होंने बताया कि आप इस समय और कोई नहीं कर सकते हो लेकिन इलेक्ट्रो होम्योपैथी का कोर्स कर सकते हो, लेकिन इसके विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं थी । मैं समझता था कोई बिजली से चिकित्सा करने वाला कुछ होगा । अधिक जानकारी वे भी नहीं दे पाए थे । बात आई गई हो गई । कुछ दिनों बाद मैं एक रास्ते से जा रहा था कि मुझे सड़क के किनारे एक बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था "बोर्ड आफ इलेक्ट्रो होम्यो पैथिक मेडिसिन " मैं अंदर गया वहां पर मुझे सुधीर मोहन मिले उन्होंने मुझे पेपर दिया और कुछ समझाया। मैं उस पेपर को लेकर घर आ गया । उसे एक अलमारी में रख दिया कुछ उस पर ध्यान नहीं दिया।
काफी दिनों बाद मुझे वह पेपर फिर मिला उसे पढ़ा और फिर कॉलेज पता किया , पता चला लखनऊ में एक कालेज "अवध इलेक्ट्रो होम्यो पैथिक मेडिकल कॉलेज" के नाम से चलता है । मैंने वहां पर एडमिशन ले लिया और पढ़ाई शुरू कर दिया । वहां पर मुझे फिलास्फी और फार्मेसी के दो टीचर मिले एक वी. डी. जोशी थे जो फिलास्फी पढाते थे दूसरे के. पी. सिंह थे जो फार्मेसी पढ़ाते थे । इन दोनों में से मेरे खूब प्रश्नोत्तर होते थे लेकिन जहां वह फसते थे वहां यही कहते थे जो लिखा है वही पढ़ाते हैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं है।
हम लोग एक साथ तीन व्यक्ति थे जिसमें आयु में सबसे बड़े श्री कैलाश नाथ श्रीवास्तव थे। जो अब नहीं रहे है। दूसरा मैं हूँ। तीसरे राजीव मोहन रस्तोगी है। हम तीनों लोगों ने यह सोचा कि जिन प्रश्नों के उत्तर इनसे नहीं मिलते हैं उन्हें हमें ढूंढना चाहिए । इस काम में हम तीनो लोग लग गए कैलाश श्रीवास्तव को जिम्मेदारी दी गई कि औषधियां तैयार करें । मुझे जिम्मेदारी दी गई कि पौधो की खोज करें और राजीव मोहन रस्तोगी को जिम्मेदारी दी गई कि बनी हुई औषधियों का प्रचार प्रसार करे ।
इस पर काम भी शुरू कर दिया गया और बहुत हद तक सफलता भी मिली लेकिन यह बात बहुत दिनों तक स्थिर नहीं रह पाई काम बहुत बड़ा था राजीव मोहन रस्तोगी ने इलेक्ट्रो होम्योपैथी का एक मेडिकल स्टोर खोला और लोगों को दवाइयां वितरित करने लगे हालांकि यह दवाइयां हम लोगों की बनाई हुई नहीं थी । यह कहीं दूसरी जगह से खरीद कर लाते थे लेकिन उस समय यह धनार्जन का साधन था । इसी बीच कुछ अनबन हो गई जिससे एक दूसरे से मिलना कम हो गया लेकिन मैं कैलाश श्रीवास्तव से बराबर मिलता रहा उनका एक कालेज भी था उन्होंने काफी प्रयास किया कि मैं उनके कालेज में फिलासफी फार्मेसी पढ़ाऊ लेकिन दूरी अधिक होने के कारण मैं वहां नहीं जा सका। सिटी के दूसरे कालेजो मे इलेक्ट्रो होम्यो पैथी और बायोकैमिक औषधियां पढ़ाता रहा । इधर औषधि बनाने की योजना प्रगति पर थी आवश्यकता इस बात की थी कि कोहोबेशन कैसे किया जाए ? क्योंकि कॉलेज में जो कोहोबेसन पढ़ाया जाता था वह किसी हालत में कोहोबेशन नही था वह फर्मेंटेशन था ।
अब कोहोबेशन अप्रेटस तैयार करने की जिम्मेदारी कैलाश श्रीवास्तव ने मुझे सौपी कुछ दिनों में ही मैंने अप्रेटस तैयार कर दिया लेकिन समस्या यह थी कि 38 डिग्री सेंटीग्रेड पर स्पेजिरिक कैसे निकाली जाए ? यह एक बहुत बड़ी टेढ़ी खीर थी और बात भी समझ में नहीं आ रही थी क्योंकि स्पेजिरिक के जो गुण दिए गए हैं उसके आधार पर 38 डिग्री सेंटीग्रेड पर कोहोबेशन किया जाता है स्पेजिरिक रंगहीन, गंध हीन , स्वाद हीन होती है । केवल स्वस्थ शरीर पर काम करती है । यह विशेष गुण वाली स्पेजिरिक तैयार करनी थी लेकिन रास्ता सुझाई नहीं दे रहा था।
इसी बीच कैलाश श्रीवास्तव सी . डी .आर . आई. के एक साइंटिस्ट से मिले और पूरी बात समझाई उस साइंटिस्ट ने हमारे अपरेटस में एक पार्ट जोड़ दिया जिससे सारी चीजे आसान हो गई है।
इस अपरेटस को कैलाश श्रीवास्तव ने अपने मकान पर लगाया था और कई पौधों व जीवो की स्पेजिरिक निकाली गई । उसके रिजल्ट बहुत अच्छे देखे गए परंतु जैसे इलेक्ट्रो होम्योपैथी के साथ आज तक होता आया है वैसे उस समय भी हुआ कैलाश श्रीवास्तव की 1999 ई0 में किडनी फेल हुई और वे स्वर्गवासी हो गए।
सन् 2001 में मैंने स्वयं कोहोबेशन का अपना प्लांट लगाया और दवाइयां तैयार करने लगा । 2014 तक हमारे यहां डायलूशन, सीरप आयल, ऑइंटमेंट आदि बनते रहे। जिनके परिणाम आश्चर्यजनक थे। 2014 में ही गाड़ी चलाते समय मेरे पैर का फ्रैक्चर हो गया। उसके बाद मैंने भागदौड़ बंद कर दी औषधियां बनाना भी बंद कर दिया । तब से मेरा कारखाना बिल्कुल बंद है अब न तो हमारे पास कोई औषधियां है और न ही ऑपरेटस ही सही सलामत बचा है। हां मेरा पैर अब बिल्कुल ठीक है।
मेरा उद्देश्य है कि इलेक्ट्रो होम्योपैथी के सही तथ्यों को लोगों तक पहुंचाया जाए और गुमराह हो रहे लोगों को सही रास्ता दिखाया जाए लेकिन यह तभी संभव हो सकता है। जब आप हमारा साथ दें । हमारे लिखी हुई चीजों को पढ़ें उस पर प्रश्न करें । बुद्धिमान लोगों को हमारी फेसबुक से जोड़ें ताकि हमारी बताई हुई बातों का विस्तार हो सके और बहुत सारे प्रश्न हमारे पास आएं ताकि हम उसका उत्तर देने का प्रयास करें।
नोट:---
(1) पौधौ की खोज करने में मेरे एक सहयोगी रहे हैं। डा0 एच. सी. मौर्य का नाम सराहनीय है । उनके बिना यह कार्य संभव नहीं हो सकता था । उन्होंने पौधों की खोज में बहुत बड़ा योगदान किया है। जंगल और पहाड़ों में जड़ी बूटियां ढूंढने में उन्होंने हमारी काफी मदद की है ।
(2) साथ ही मैं उन पुस्तकालयों का भी आभार व्यक्त करना चाहता हूं जहां बैठकर मैंने पुस्तको का अध्ययन किया है। इनमें ब्रिटिश लाइब्रेरी लखनऊ , पुस्तकालय हिंदी संस्थान लखनऊ, आचार्य नरेंद्र देव पुस्तकालय लखनऊ, पुस्तकालय किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज लखनऊ , पुस्तकालय आयुर्वेद महाविद्यालय लखनऊ , पुस्तकालय मोतीलाल मेमोरियल होम्योपैथिक चिकित्सालय लखनऊ, जनरल पुस्तकालय एस. जी. पी.जी.आई. लखनऊ।
(3) 26 जनवरी 1995 को मैंने फिलास्फी और फार्मेसी यह पुस्तक लिखना शुरू किया।जो लगभग 3 साल की अथक परिश्रम के बाद पूर्ण हुई लेकिन दुर्भाग्यवश छप नहीं पाई है।