जीवाणु शारीरक रोग सृजित नहीं करता है केवल बढाता है।
शास्त्रों में कहा गया है कि "शरीरम् व्याधि मंदिरं" कि शरीर रोगों का घर है। यह रोग शरीर में कई प्रकार से लग जाते हैं। इसलिए पहले हम इस विषय में जानकारी कर लेते हैं कि रोग कितने प्रकार के होते है।
रोग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं जो निम्नलिखित परिस्थितियों में शरीर से लग जाते हैं :----
(अ) मानसिक रोग
मानसिक रोगों के बहुत से कारण हो सकते हैं, जिनमे निम्नलिखित मुख्य कारण है:-----
(1) किसी नर्व का दबना
शरीर में कुछ नर्व होती हैं जब उन पर दबाव पड़ने लगता है तो वे अपना काम या तो तेज कर देती हैं या धीमा कर देती हैं इसके कारण मानसिक असंतुलन होने लगता है। जिसकी डायग्नोसिस मुख्यता सिटी स्कैन से की जाती है ।
(2) हार्मोन आदि श्रावों का असंतुलन
शरीर में कई डक्टलेस व डक्ट युक्त ग्लैन्डस है जिनसे हार्मोन निकल कर ब्लड में मिल जाते हैं। इनके असंतुलन से मानसिक स्थिति असंतुलित होने लगती है । उदाहरण के लिए जब जब शरीर में इंसुलिन का स्त्राव ज्यादा होने लगता है । तो शुगर ज्यादा डाईजेस्ट होती है । ऐसी स्थिति में यदि उसके अनुपात में शुगर न ली जाए तो मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
इसी तरह ब्रेन में जब डोपामाइन हार्मोन असंतुलित हो जाता है तो मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
(3) मानसिक आघात होना
कभी-कभी मन में कोई आघात लग जाता है जिसके कारण मानसिक असंतुलन हो जाता है।
(4) मौसम का प्रभाव पड़ना
मानसिक असंतुलन पर ऋतुओं का भारी प्रभाव पड़ता है लेकिन कोई ऋतु मानसिक असंतुलन पैदा नहीं करता है केवल उसे बढ़ावा देती है । भारत में दो-दो महीने में ऋतुएं बदलती हैं । मुख्य तौर पर दो ही ऋतुएं होती हैं। सर्दी और गर्मी जब यह ऋतुएं चेंज होती हैं उसी समय मानसिक बीमारी के लक्षण बढ़ जाते हैं। इसी कारण ग्रीष्म व शरद ऋतु के नवरात्रों के आस पास मानसिक रोगी बढ जाते हैं।
(ब) शारीरिक रोग
हालांकि मन शरीर में ही होता है मस्तिष्क भी शरीर में ही होता है फिर भी मानसिक रोगों को अलग किया गया है क्योंकि मानसिक रोगों में शरीर के अंदर कोई भौतिक परिवर्तन या तो नहीं होता है या फिर कम होता है। लेकिन शारीरिक रोगों में शरीर में या तो अधिक परिवर्तन हो जाता है या आंशिक परिवर्तन होता है हालांकि परिवर्तन होता है । जो ज्यादातर बाहर से दिखता है ।
(1) हार्मोन व रसो का असंतुलन होना
शरीर में बहुत सारे हार्मोन व रस होते हैं जिनके असंतुलन के कारण शरीर में बीमारियां लग जाती हैं । उदाहरण के लिए आयोडीन , पित्त, टेस्टोस्टरॉन, प्रोजेस्ट्रोन आदि अनेक हार्मोन व रस है जिनके असंतुलित होने से रोग हो जाते हैं । इन्हें संतुलित करना पड़ता है तभी तो सही होते हैं ।
(2) विटामिंस का असंतुलन होना
शरीर में बहुत सारे विटामिंस होते हैं इनका संतुलित मात्रा में शरीर में रहना आवश्यक है। यदि इनकी मात्रा घट जाए या अधिक बढ़ जाए तो शरीर में रोग हो जाते हैं फिर इन्हें संतुलित करना पड़ता है। उदाहरण के लिए विटामिन ए की कमी से नाइट ब्लाइंडनेस ,(रतौधी ) विटामिन सी की कमी से स्कर्वी और बी की कमी से बेरी बेरी तथा बी-12 की कमी से याददाश्त (मेमोरी) कमजोर होने लगती है ।
(3) एंजाइम का असंतुलन होना
शरीर में बहुत सारी रासायनिक क्रियाएं होती हैं जिनके कारण हमारा शरीर चलता है और इन क्रियाओं को चलाने के लिए एंजाइम्स की आवश्यकता होती है यदि एंजाइम असंतुलित हो जाए तो रासायनिक क्रिया भी प्रभावित हो जाती है और सही ढंग से काम नहीं करती हैं जिसके कारण शरीर में भारीपन हो जाता है और रोगी हो जाता है। उदाहरण के लिए हमारे शरीर में पाचन क्रिया मे सहयोग के लिए कई एंजाइम होते हैं यदि एंजाइम असंतुलित हो जाते हैं तो डाइजेशन सिस्टम खराब हो जाता है।
(4) सप्लाई बाधित होना
हमारे शरीर में ब्लड, लसिका, नर्व निरंतर बहा करता है जो छोटी सी छोटी कैपिलरी में जाता है लेकिन जब यह है सप्लाई किसी कारण से बाधित हो जाती है। तो वहां का अंग रोगी हो जाता है। जब तक सप्लाई निरंतर नहीं की जाती तब तक अंग रोगी बना रहता है। गैंग्रीन आदि इसके उदाहरण है।
(5) ताप, नमी का प्रभाव पड़ना
हमारे शरीर पर ताप व नमी का भारी प्रभाव पड़ता । जब तापक्रम कम होता है तब हमारे शरीर की रक्त वाहिकाये पतली हो जाती हैं जिसके कारण शरीर के प्रत्येक भाग में रक्त पहुंचना कठिन हो जाता है और रक्त की सप्लाई अच्छी नहीं हो पाती। जिसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर अस्वस्थ महसूस करता है।
इसी तरह जब तापक्रम अधिक होता है तो शरीर से भारी मात्रा में पानी उड़ जाता है जिसके कारण शरीर में डिहाइड्रेशन हो जाता है जिसे नॉर्मल करना पड़ता है।
इसी तरह अधिक टेंपरेचर बढ़ने या घटने से विटामिंस नष्ट होने लगते हैं जिससे शरीर कंम्फर्टेबल नहीं महसूस करता है। इसीलिए जाड़े के महीनों में हार्ट के पेशियन्ट बढ़ जाते हैं और गर्मी के महीनों में सन शाक (लू) के पेशिएनट बढ़ जाते हैं ।
(6) मेटाबॉलिज्म
जब शरीर में मेटाबॉलिज्म की क्रिया सही ढंग से नहीं होती तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है उसे दुरुस्त करने के लिए दवाइयों की आवश्यकता पड़ती है।
इसके अतिरिक्त और भी कई कारण होते हैं जिसके कारण शरीर अस्वस्थ हो जाता है । शरीर के रक्त में फाइगोसाइटिस सेल्स (भक्षण कोशिकाएं) होती हैं जो शरीर में सुरक्षा का कार्य करती हैं। कभी-कभी बैक्टीरिया हमारे शरीर में आ जाता है तो यह भक्षण कोशिकाएं बैक्टीरिया को समाप्त करने के लिये लडती हैं। दोनों में युद्ध होता है । यदि इस युद्ध में भक्षण कोशिकाएं पराजित हो जाती हैं। तो बैक्टीरिया शरीर में अपना राज्य स्थापित कर लेता है और शरीर को रोगी बना देता है । यदि यह कोशिकाएं बैक्टीरिया को पराजित कर देती है शरीर स्वस्थ बना रहता है।
जब तक हमारा शरीर अंदर से मजबूत है भक्षण कोशिकाएं भी मजबूत होगी और शक्ति शाली होंगी तब तक कोई बैक्टीरिया हमारे शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता है। जब हमारे शरीर में कोई एब्नार्मलटी (असमानता) होगी तब यह भक्षण कोशिकाएं कमजोर हो जाएंगी जिसके फलस्वरूप बैक्टीरिया शीघ्रता से शरीर में प्रवेश कर रोगी बना देगा।
इससे स्पष्ट है कि जब हमारे शरीर में कोई एब्नार्मल्टी होती है तभी बैक्टीरिया प्रवेश कर सकता है और रोग को बढाता है पैदा नहीं करता है ।
यदि शरीर में बैक्टीरिया प्रवेश कर गया है तो उसको ठीक करने के दो तरीके है।वही अपनाए जाते हैं। अब आपको तय करना है कि कौन सा तरीका कब अपनाना चाहिए :----
(1) बैक्टीरिया को मार दिया जाए
यह वह तरीका है जिसमे एंटीबायोटिक दवा देकर बैक्टीरिया को मार दिया जाए और शरीर अपनी क्षमता को स्वयं मजबूत कर ले और रोग से मुक्त मिल जाए ।
(2) बैक्टीरिया को अनुकूल माहौल न मिले
यह वह तरीका है जिसमें शरीर के अंदर संतुलित मात्रा में ऑक्सीजन ,लसिका नर्व पहुंचे मेटाबॉलिज्म दुरुस्त रहे जिससे हमारी फैगोसाइटिक सेल (भक्षण कोशिकाएं ) मजबूत हो जाएं और बैक्टीरिया को मार भगाएं। बैक्टीरिया के रहने लायक शरीर में अनुकूल वातावरण न रहे । ऐसी स्थिति में हमारा शरीर स्वस्थ हो जाता है।
आज के समय में एलोपैथिक चिकित्सा पहले एंटीबायोटिक देकर बैक्टीरिया को मारते हैं उसके बाद रोगी को एंजाइम विटामिन हार्मोन आदि देकर उसे स्वस्थ कर देते हैं।
इलेक्ट्रो होम्योपैथिक में दवाएं ही एंजाइम विटामिन हार्मोन के करीब होती हैं इसलिए यदि ये दवाएं ली जाती है एलोपैथिक जैसे दुष्प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ते और शरीर स्वस्थ बना रहता है।
जो लोग एलोपैथिक प्रैक्टिस करते हैं उन लोगों ने देखा होगा यदि किसी बीमारी का शरीर मे रहने का समय 8 का है और एलोपैथिक दवा देकर उसे 3 दिन में सही कर दिया गया । तो बाकी 5 दिन उसे या तो भूख नहीं लगेगी या खांसी आती रहेगी या और कोई प्रॉब्लम रहेगी । जब 8 दिन पूरे हो जाएंगे तब रोगी का सब ठीक हो जाएगा । यदि उसके साथ में इलेक्ट्रो होम्योपैथिक/ होम्योपैथिक /आयुर्वेदिक कोई दवा दे दी जाए तो बाकी 5 दिन तक उसे कोई तकलीफ नहीं होती क्योंकि बैक्टीरिया मरने के बाद शरीर में रासायनिक क्रियाएं शीघ्रता से ठीक हो जाती है । ध्यान दें तो यह सभी चिकित्सा के सामने घटना आई होगी ।