इलेक्ट्रो होम्योपैथी का भारतीय इतिहास Electro Homeopathy in India
इलेक्ट्रो होम्योपैथी के इतिहास को मुख्यता दो भागों में बांटा जा सकता है।
( 1) पूर्वाद्ध काल
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इसमें सीजर मैटी के जन्म से ISO कंपनी जर्मन को दवा के फार्मूले हस्तांतरित करने तक का वर्णन आता है।
(2) उत्तरार्द्ध
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इसमें सीजर मैटी की मृत्यु के बाद भारत में इलेक्ट्रो होम्योपैथी का जो प्रचार प्रसार हुआ उसका वर्णन आता है।
उत्तरार्द्ध भाग
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इटालियन नोबेल सीजर मैटी की मृत्यु 1896 ई0 में होने के बाद उनके दामाद ने औषधि बनाने का कार्य जर्मन की एक कंपनी IS0 को सौंप दिया था। जिसे नंदलाल सिन्हा ने अपनी बुक में JS0 (जेसो) नाम से लिखा है । वास्तव में नंदलाल सिन्हा ने कोई गलती नहीं की थी। ISO कंपनी जर्मन का जो ट्रेडमार्क है उसमें ही आई को JSO जैसा लिखा गया है । इसी से लोग जर्मन की कंपनी को JS0 ( जेसो ) पढ़ते हैं।
काउंट सीजर मैटी की मृत्यु के बाद पूरे विश्व के इलेक्ट्रो जगत में उथल-पुथल मच गया था। कुछ लोग अपनी रोटी इलेक्ट्रो के नाम पर सेकने लगे थे। यानी लोगों को इलेक्ट्रो होम्योपैथी के नाम पर गुमराह करने लगे थे क्योंकि काउंट सीजर मैटी ने इलेक्ट्रो होम्यो पैथिक मेडिसिन के फार्मूले अपने जीवन में किसी को नहीं दिया था। उसे एक "सीक्रेट रिमेडी" की तरह रखा था । ऐसे लोगों में कई विदेशी लोग है। जिनमें डा0 फादर मूलर का नाम सामने आया है।
कुछ लोग ऐसे भी थे जो इलेक्ट्रो होम्योपैथी को आगे बढ़ाना चाहते थे लेकिन उनके पास औषधि फार्मूले न होने के कारण मजबूर थे । ऐसे लोग भी दुनिया में बहुत से थे। जिनका इतिहास समय की आंधी में उड़ गया है। भारत में भी इलेक्ट्रो होम्योपैथी को चाहने वाले कई लोग थे जो औषधि फार्मूले तो नहीं जानते थे लेकिन औषधियों से प्रैक्टिस करते थे। ऐसे लोगों में बंगाल के राधा माधव हलधर का नाम प्रसिद्ध है।
इन्होंने 1896 ई0 कलकत्ता में प्रैक्टिस करना शुरू किया था। यह औषधियां इटली से मंगाते थे। इनकी प्रैक्टिस के कारण इलेक्ट्रो होम्योपैथी बहुत तेजी से कलकत्ता के आसपास में तेजी से फैलने लगी। यहीं से यह पैथी पूरे बंगाल बिहार, उड़ीसा ,कर्नाटक ,मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में तेजी से फैलने लगी थी।
डा0 टी. बनर्जी ने 1897 में ही Bangal Medical Electric Institute नाम की संस्था कलकत्ता में स्थापित की थी । यह भारत की पहली शैक्षणिक संस्था थी । इसके बाद दूसरी संस्था इलाहाबाद में 1911 में डॉ एस. पी. श्रीवास्तव एम. डी. द्वारा स्थापित की गई । अभी तक दबाए बाहर से आ रही थी परंतु 1914 में विश्व युद्ध छिड जाने के कारण बाहर से दवाइयां आना बंद हो गई लेकिन इलेक्ट्रो होम्योपैथिक डॉक्टरों का उत्साह बंद नहीं हुआ । लखनऊ के बलदेव प्रसाद सक्सेना केसर बाग में प्रैक्टिस करते थे। यह उसी बिल्डिंग मे प्रैक्टिस करते थे जिसमें पहले "नेशनल होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज" चलता था इस बिल्डिंग को हमने आंखों से देखा है और अंदर गए हैं। इस तरह से अनेक इलेक्ट्रो होम्योपैथिक डॉक्टर थे जिन लोगों ने इस पैथी के प्रचार प्रसार में काफी सहयोग किया है उनमें डा0 वी एम कुलकर्णी, डॉक्टर तांम्बे(पूना), डा0 रमण , डॉक्टर युद्धवीर सिंह, डॉक्टर नंदलाल सिन्हा (कानपुर) ,के नाम प्रमुखता से लिए जाते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध से पहले लंदन में "मैटी एसोसिएशन" की स्थापना हो चुकी थी। इस एसोसिएशन द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य संचालित किया गया था। इस एसोसिएशन की पहली पत्रिका "Modern Medecine" नाम से प्रकाशित गई थी । प्रथम विश्व युद्ध के कारण इटली से दवाइयां बाहर नहीं जा पाती थी। इसलिए फार्मूले जर्मन की JSO कंम्पनी को मैटी के दामाद द्वारा आधिकारिक रूप से सौप गए थे और वहां से दवाइयां बाहर भेजी जाने लगी लेकिन इलेक्ट्रो होम्योपैथी का रूप बदलकर ISO के डॉ 0 थूडरक्रास ने इलेक्ट्रो कांप्लेक्स होम्योपैथी नाम कर दिया गया था और इलेक्ट्रो होम्योपैथी में मैटी के द्वारा छूटे हुए नंबरों की दवाओं को पूरा कर दिया था।
भारत में इलेक्ट्रो होम्योपैथी के बहुत से शिक्षण संस्थान खुली। इनमे पढ़ाने हेतु साहित्य का भी निर्माण किया गया। साहित्य निर्माण में कानपुर के नंदलाल सिन्हा, वी. एम. कुलकर्णी, और विदेशी डॉ ए. जे.गिल्डेन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। वी .एम. कुलकर्णी ने अपनी पुस्तक में पौधौ के विषय में जो लिखा है उसका आधार मॉडर्न मेडिसिन को बनाया है । और उसी आधार पर फार्मेसी भी लिखी है लेकिन नंदलाल सिन्हा ने सिन्हा ने प्लांटों के विषय में जो लिखा है उसका आधार ISO वर्क रिजेनबर्ग जर्मनी द्वारा प्रकाशित पुस्तक को आधार बनाया है । यहां मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि दोनों पुस्तकों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि किस पुस्तक की कौन सी पुस्तक नकल की गई है । दोनों में मेडिसिन के जो इनग्रेडिएंट लिखे है वह एक ही क्रम में लिखे हैं।
वी. एम. कुलकर्णी की पुस्तक में जो औषधि इनग्रेडिएंट (पौधे) लिखे हैं वे ISO के औषधि इनग्रेडिएंट से या नंदलाल सिन्हा कानपुर की पुस्तकों से मेल नहीं खाते है ।
चूंकि कोहोबेशन करने की विधि JSO ने ( भारत मे प्रचलित नाम ) नहीं ओपन की थी उसे मैटी की तरह सीक्रेट रखा था। इसलिए कोहोवेशन किसी भी बुक में नहीं लिखा गया है। लोगों को इस बात की तो जानकारी थी कि दवाएं कोहोबेशन विधि से तैयार की जाती हैं लेकिन कोहोबेशन कैसे किया जाता है इसमें भ्रम था । कोहोवेशन से पहले फर्मेंटेशन किया जाता है। यह भी लोगों को पता था लेकिन समस्या वहां खड़ी हो गई कोहोबेशन शब्द प्रचलित न होने के कारण इसे शब्द कोष से ही बाहर निकाल दिया गया है लिहाजा लोग कोहोवबेशन नहीं समझ पाए । इधर डॉक्टर नंदलाल सिन्हा ने फर्मेंटेशन को ही कोहोबेशन समझकर अपनी पुस्तकों में लिख दिया । जिससे लोगों में भ्रम फैल गया और नकल करने वाले लोगों ने अपनी पुस्तकों में फर्मेंटेशन को ही कोहोबेशन लिखकर फैला दिया। जो आज तक चला रहा है। यही हाल और odd force और Spagyric का हुआ है ।
कोहोबेशन पर लखनऊ के स्व0 डा0 कैलाश नाथ श्रीवास्तव , डॉ अशोक कुमार मौर्य ने शोध किया है और 2014 तक मेडिसिन तैयार की है जिसके अच्छे रिजल्ट आए हैं।
आज के समय में प्रदेश सरकार द्वारा अधिनियम 21, सन् 1860 मे रजिस्टर्ड अनेक शिक्षण संस्थाएं चल रही हैं। जिनमें इलेक्ट्रो होम्योपैथी का प्रचार प्रसार शिक्षण प्रशिक्षण किया जा रहा है जो एक सराहनीय कार्य है। इन्हीं लोगों के बल पर आज इलेक्ट्रो होम्योपैथी जीवित है । इन लोगों मे नंदलाल सिन्हा और मोहम्मद हाशिम इदरीसी जैसे अनेक लोग है जो प्रचार प्रसार शिक्षण प्रशिक्षण के साथ साथ इलेक्ट्रो होम्योपैथी की मान्यता के लिए भी प्रयास कर रहे हैं।
नोट---
(1) इलेक्ट्रो होम्योपैथी का इतिहास भारत में बहुत अधिक है जिसको लिखना यहां संभव नहीं है।
(2) इलेक्ट्रो होम्योपैथी के प्रचार प्रसार और शिक्षण प्रशिक्षण में भी बहुत से लोग हैं जिनके नाम यहां लिखना संभव नहीं है हम उन सब को आदर व नमन करते हैं।
(3) इलेक्ट्रो होम्योपैथी के डाक्टरों को आपने शिक्षक , चिकित्सक, व गुरुओं का आदर करना चाहिए ताकि प्रचार प्रसार शिक्षण प्रशिक्षण और मान्यता की लड़ाई में युद्ध लड़ने वाले लोग हतोत्साहित न हो।
(4) इलेक्ट्रो होम्योपैथिक संस्थान भारत में ही नहीं जापान जर्मन कनाडा इटली पाकिस्तान बांग्लादेश अफगानिस्तान आदि अनेक देशों में स्थापित है लेकिन दुनिया की किसी भी देश में इसकी अलग से सरकारी मान्यता नहीं है।
(5) हम जानते हैं कि बहुत से हमारे सीनियर्स, टीचर्स और शोधकर्ताओं के नाम छूट गए हैं। जिनके नाम यहां आने चाहिए थे पर नहीं आ पाए उनके लिए हम उन सब से क्षमा मांगते हैं।
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