इलेक्ट्रो होम्योपैथी की आवश्यकता क्यों पड़ी ?
संसार में जब से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है। तब से उसके साथ में रोग रहे है शास्त्रो में कहा गया है "शरीर रोगों का घर है" यह रोग विभिन्न प्रकार के होते हैं जिनका वर्णन हम पीछे कर चुके हैं । जब शरीर में रोग होते हैं तो जहां रोग होते हैं उसी के आसपास उनका उपचार भी होता है लेकिन इन चीजों की हमें जानकारी नहीं होती इसलिए हम उपचार नहीं ढूंढ पाते हैं।
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आपको याद होगा पहले गांव में जब कोई उंगली कट जाती थी तो आसपास से कोई गिट्टी उठाकर कटे स्थान पर लगाकर खून बंद कर देते थे या आस पास कोई घास निकालकर उसका रस रस कटे स्थान पर डाल देते थे या सिलाई करते समय दर्जी की सुई लग जाए तो सिलाई मशीन का तेल जख्म पर डाल देते थे इसी तरह स्टूडेंट लाइफ में निब लग जाए या ब्लेड से कट जाए तो स्याही लगा लेते थे और जख्म ठीक भी हो जाते थे । हालांकि आज की दृष्टि में यह सब उचित नहीं था।
पुराने समय में लोगों को ठीक करने के लिए बड़े अजीबो गरीब उपचार किए जाते थे। हालांकि उसमे 40 परसेंट ही बचने की संभावना रहती थी लेकिन 40 परसेंट बचना भी बहुत बड़ी सफलता बात होती थी । उस समय के उपचार कान खड़े कर देने वाले होते थे। यूनानी चिकित्सा क्षेत्र का गढ़ माना जाता था। वहां पर चिकित्सा की बड़ी अजीबो-गरीब विधियां थी गर्म सलाखों से रोगी को जलाकर उसका उपचार किया जाता था। हथौडे से पीट-पीटकर उपचार किया जाता था। कहीं आग जलाकर शेक लगाई जाती थी तो कहीं छूमंतर चलता था कहीं भूत प्रेत टोना टोटका आदि के द्वारा उपचार होते थे।
यह उपचार के तरीके कहीं बाहर से नहीं , भारत से ही वहां पहुंचे थे क्योंकि मैक्स मूलर ने एक स्थान पर कहा है "जब भारत सभ्यता के ऊंचे शिखर पर था " तब विदेशों में जंगली जातियां निवास करती थी " इससे जाहिर है कि चिकित्सा की यह बिधियां पहले भारत में रही होगी उसके बाद विदेशों में पहुंची होंगी क्योंकि बहुत से विदेशी विद्यार्थी भारत में शिक्षा ग्रहण करने आते थे और फिर अपने देश में जाकर काम करते थे लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि आज हम उन चिकित्सा पद्धतियों को बाहरी मान बैठे हैं । न्यू व्हीलिंग आफ.दि साइंस या नेचुरोपैथी आयुर्वेद का एक हिस्सा है लेकर उसे हम बाहर की पैथी मान बैठे । इसी तरह एक्यूपंचर और एक्यूप्रेशर, क्रोमोथैरेपी आयुर्वेद की एक शाखा है लेकिन उसे हम बाहरी मान बैठे है।
इस तरह की खतरनाक चिकित्सा पद्धतियां जब विदेशों में चल रही थी उस समय भारत मैं भी ऐसी चिकित्सा पद्धति या चल रही थी हालांकि उस समय मन से लाभ हो जाता था जैसे जोक लगाना मंत्रों से उपचार करना सेक लगाना आदि भारत पर भी उपचार होते थे लेकिन वही बात यहां भी थी की बहुत सारी रोगी ठीक नहीं हो पाते थे वैद्य और हकीम ओं का भारत में और विदेशों में दौर चला आयुर्वेद और यूनानी दवाएं प्रसारित होने लगी धीमे धीमे लोगों में जागरूकता बढ़ी और दवाएं इस्तेमाल करने लगे इधर एलोपैथी भी डिवेलप होने लगी लेकिन एलोपैथी में भी ऐसी दवाइयां दी जो बहुत अधिक साइड इफेक्ट्स होती थी जिसके कारण एक बीमारी ठीक होती थी और दूसरी उभर कर सामने आ जाती थी।
इसी समय जर्मन के एक डॉक्टर हनी मैंन ने होम्योपैथी सिद्धांत को डेवलप किया । उनका मानना था कि शरीर में जब कोई तकलीफ होती है तो उसका कोई एक मुख्य कारण होता है। उसी कारण को डायग्नोस कर यदि दवा दे दी जाए तो रोगी ठीक हो जाएगा अधिक दवाएं देने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने इसी सिद्धांत पर दवाइयां देना शुरू किया और लाभ भी होने लगा।
जर्मनी के आसपास के लोग बहुत तेजी से होम्योपैथी का उपचार लेने लगे और होम्योपैथी एक अच्छी पैथी के रूप मे उभर कर सामने आई लेकिन इसमें रोग ठीक करने मे काफी समय लग जाता था क्योंकि रोगों का मूल कारण जल्दी से डायग्नोस नहीं हो पाता था।
औषधियों में एल्केलॉइड्स इस्तेमाल होने के कारण दबाए एग्रीवेट कर जाती थी। जिससे रोग ठीक होने के बजाए उभर आता था और रोगी परेशान हो जाता था।
डॉक्टर हनीमैन के समकालीन काउन्ट सीजर मैटी इटली में हुए यह औषधि का अच्छा नॉलेज रखते थे और इन्होने होम्योपैथी को एक अच्छा चिकित्सा शास्त्र माना परंतु इसमें भी इन्हें कुछ कमियां मिली । काउंट सीजर मैटी ने उन कमियों को दूर करते हुए एक नए चिकित्सा शास्त्र की स्थापना की जिस का सिद्धांत था होम्योपैथी के ठीक उल्टा काम्प्लेक्सिया काम्प्लेक्सिस क्यूरेटर । यानी कामप्लेक्स प्रकार के रोग में काम्प्लेक्स की औषधि दी जाए। इस तरह काउन्ट सीजर मैटी ने ऐसी औषधियां तैयार की जिन्हें एक साथ दिया जा सकता था जिससे होम्योपैथी की अपेक्षा लोग भी जल्दी ठीक होते थे।